शार्ट कट की जल्दबाजी निश्चित रूप से गड्ढे में लेकर जाएगी- बिन्दु बाला बिन्द
गाजीपुर : खुद को क्रांतिकारी कहलाने वाले वामपंथी, समाजवादी व फुले आंबेडकरवादी आजकल इतनी जल्दबाजी में हैं कि उन्हें किसी ने दूर कहीं छोटी सी आशा की किरण दिखाई कि तुरंत नाचना शुरू कर देते हैं. अपनी जल्दबाजी का समर्थन भी उनके पास रहता है कोई कहता है पत्थर से ईंट ही भली कोई कहता है महापुरुषों के वारिस एकत्र आ गए हैं अब क्रांति हुई ही समझो! किसी को कल के पप्पू में क्रांतिकारी बदलाव दिखाई पड़ने लगता है तो किसी को मफलर वाले में कल का प्रधानमंत्री दिखाई पड़ने लगता है. आज के प्रगतिशील लोगों को ऐसा लगता है कि इन प्रस्थापितों में से कोई तो अवतार रूप धारण करे और जादू की छड़ी घुमाकर भाजपा के पत्थर के नीचे दबा हुआ लोकतंत्र का हाथ मुक्त कराकर दे. प्रगतिशील मंडली की यह हतबलता विश्लेषण के बाहर की चीज है. कोई भी जागरूक व्यक्ति अपने ऊपर आनेवाले व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक संकट की आहट मिलते ही सतर्क होता है और संकट से दो दो हाथ करने के लिए उपाययोजना बनाता है. इस बारे में अपने वामपंथी एवं प्रगतिशीलों का पूर्वानुभव क्या कहता है? इसके लिए हमें थोड़ा इतिहास में झांकना होगा.
बिन्दु बाला ने कहा कि 1975 के आपातकाल के कारण खतरे में आए लोकतंत्र को बचाने के लिए उस समय जो प्रयत्न किए गए उससे बिना कुछ सीख लिए आज का प्रयत्न किया जा रहा है ऐसा दिख रहा है. उस समय कांग्रेस के एकाधिकार शाही के विरोध में लोहियावादी समाजवादी पार्टियां ब्राह्मणवादी संघ-जनसंघ व गांधीवादी-पूंजीवादी संगठन कांग्रेस इन तीन विरोधी विचारधारा की पार्टियों का विलीनीकरण करके ‘जनता पार्टी’ नाम से नई पार्टी खड़ी की गई थी. उनमें एक दूसरे के धुर विरोधी राजनीतिक शत्रु के रूप में समाजवादी पार्टियां एवं संघ- जनसंघ पार्टी थी और इन दोनों में समन्वय साधने का काम गांधीवादी- पूंजीवादी ‘संगठन -कांग्रेस कर रही थी जनता पार्टी के इस वैचारिक गठबंधन ने 1977 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत प्राप्त करके कांग्रेसी तानाशाही को नष्ट किया एवं लोकतंत्र की पुनर्स्थापना की, यह गठबंधन और उसकी सत्ता दीर्घ काल तक टिकी भी होती यदि उसमें जातीय संघर्ष की चिनगारी न पड़ी होती, जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में ही इस चिनगारी के बीज थे जनता पार्टी के निर्माण एवं नीति निर्धारण में समाजवादी आंदोलन से आए नेताओं का महत्वपूर्ण योगदान था इसके अतिरिक्त यह नेतृत्व ग्रामीण परिवेश व कनिष्ठ ओबीसी जातियों से गाँव देहात से आए थे, इसलिए उनकी जमीनी सामाजिक ताकत ज्यादा थी. जनसंघ को उस समय ब्राह्मण बनियों की पार्टी के रूप में पहचाना जाता था इसलिए उसकी सामाजिक ताकत कुछ खास नहीं थी. इन ओबीसी नेताओं के प्रभाव के कारण जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में कालेलकर आयोग लागू करने की बात समाविष्ट करनी पड़ी. इतना ही नहीं बल्कि चुनाव में प्रचंड बहुमत से सत्ता मिलने के बाद तुरंत कालेलकर आयोग लागू करने के लिए हलचल शुरू हो गई.
ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर उसके पहले राज्य सरकारें गिरने के उदाहरण घटित होने के कारण गांधीवादी- पूंजीवादी मोरारजी देसाई ने सावधानी वाली भूमिका अपनाई. प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने जनता पार्टी के जाति अंतक समाजवादी ओबीसी शक्ति व संघ-जनसंघ की जाति समर्थक ब्राह्मणवादी शक्ति इन दोनों के बीच समन्वय साधने का प्रयास किया. जनता पार्टी की सत्ता स्थापित होने के बाद ओबीसी नेता कालेलकर आयोग लागू करने के लिए आक्रामक हुए तो “कालेलकर आयोग पुराना हो गया है अब हम नया मंडल आयोग गठित करके उसे लागू करेंगे ” ऐसा कहकर प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने समय तो निकाल लिया लेकिन दो वर्ष के बाद मंडल आयोग की रिपोर्ट आयेगी तो उस समय सरकार कैसे बचायेंगे यह चिंता मोरारजी को सता ही रही थी. इसी दौरान मंडल आयोग का समय बढ़ाकर और एक बार उन्होंने मुसीबत को आगे ढकेल दिया,किंतु संघ-जनसंघ की ब्राह्मणी छावनी इस प्रकार समय बिताने से संतुष्ट नहीं थी उन्हें पक्का मालूम था कि जनता पार्टी के अस्तित्व में रहते यदि मंडल आयोग की रिपोर्ट लोकसभा में पेश हुई तो उसे लागू करने से कोई भी नहीं रोक सकता. इसलिए संघ-जनसंघ की ब्राह्मणी छावनी को इस जाति अंतक ओबीसी के सवाल पर स्थायी एकतरफा सोल्युशन चाहिए था और वह उन्होंने खोज भी निकाला. आक्रामक ओबीसी नेताओं के दबाव के कारण कांग्रेस व जनसंघ की ब्राह्मणी छावनी को खुलकर कालेलकर- मंडल आयोग को लागू करने का विरोध करने को नहीं हो रहा था और उस मुद्दे पर जनता पार्टी की सरकार भी गिराने को नहीं हो रहा था. इसलिए उन्होंने संघ व जनसंघ का द्वि सदस्यता का मुद्दा ढूंढ़कर निकाला और उसे इतना तानकर पकड़ा कि इसी मुद्दे पर जनता पार्टी की सरकार गिर गई. इस प्रकार तत्कालीन ब्राह्मणी छावनी द्वि-सदस्यता जैसे फालतू मुद्दे पर सरकार गिराने में कामयाब हो गई व जाति अंतक मंडल आयोग का संभावित क्रियान्वयन रोक दिया गया. संघ-जनसंघ का द्वि- सदस्यता कितना फालतू था यह सरकार गिराने वाले समाजवादी जार्ज फर्नांडीस ने ही सिद्ध किया.संघ- जनसंघ के द्वि- सदस्यता का कड़ा विरोध करते हुए जार्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार गिराई गई. परंतु यही जार्ज फर्नांडीस बाद में संघ- भाजपा प्रणीत एनडीए के नियंत्रक हुए और भाजपा सरकार में रक्षामंत्री भी बने. जनता पार्टी की सरकार गिराकर संभावित मंडल आयोग को लागू करने से रोकने वाला षड्यंत्र यशस्वी करने में जार्ज फर्नांडीस ने संघ-जनसंघ की ब्राह्मणी छावनी की जो मदद की थी उसके बदले में जार्ज फर्नांडीस को वाजपेयी मंत्रिमंडल में रक्षामंत्री का पद मिला और एनडीए का निमंत्रक पद भी मिला.
कांग्रेसी इंदिरा गांधी के एकाधिकार शाही के विरोध में लोकतंत्र बचाने के लिए जनता पार्टी का जो प्रयोग हुआ उसमें ब्राह्मणी-अब्राह्मणी छावनी के बीच का संघर्ष एजेंडे पर आना और मंडल आयोग के माध्यम से जाति अंत का सवाल अगले टप्पे पर आना यह उस जनता पार्टी प्रयोग का फल समझना चाहिए. कालेलकर आयोग की रिपोर्ट कचरा पेटी में डालने का अनुभव कांग्रेस के पास होने के कारण मंडल आयोग की रिपोर्ट भी ठंडे बस्ते में डालने का काम कर सकती है, यह ध्यान में रखकर संघ- भाजपा ने 1981 के चुनाव में इंदिरा गांधी की सरकार फिर से लाने के लिए कांग्रेस को छुपा सहयोग किया, इदिंरा गांधी ने 1981 में सत्ता में आने के बाद मंडल आयोग की रिपोर्ट का वही किया जो नेहरू ने 1955 में कालेलकर आयोग का किया था. इस प्रकार ब्राह्मणी छावनी के सगे भाई कांग्रेस व संघ-भाजपा ने एक दूसरे का सहयोग करते हुए कुपंथ पर चलने की दोस्ती निभाई. फुले अंबेडकर की जाति अंतक लोकतांत्रिक आंदोलन व समाजवादी आंदोलन से तैयार हुए आक्रामक ओबीसी नेताओं के कारण मंडल आयोग जैसे जाति अंतक मुद्दे को अधिक दिनों तक दबाकर नहीं रखा जा सकता, इसका विश्वास ब्राह्मणी छावनी को था इसलिए मंडल आयोग को दबाने का काम इंदिरा गांधी को सौंपकर वे शांत नहीं बैठे और दस वर्षों के बाद हमें मंडल आयोग के निमित्त जाति अंतक सवालों से भिड़ना होगा, इसका अनुमान संघ-भाजपा को था .
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति की प्रचंड लहर में 1984 का लोकसभा चुनाव संपन्न हुआ एवं रिकार्ड बहुमत से राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने. मंडल आयोग के संभावित जाति अंतक आक्रमण को रोकने के लिए संघ-भाजपा ने राजीव गांधी से छुपा गठबंधन करके धार्मिक- सांस्कृतिक प्रति चढ़ाई की तैयारी किया. राजीव गांधी से राम मंदिर का दरवाजा खुलवाकर हिन्दू- मुस्लिम दंगों का महाद्वार खोल दिया गया. मंडल आयोग के संभावित जातीय ध्रुवीकरण को हिन्दू मुस्लिम धार्मिक ध्रुवीकरण में डुबाने के लिए देशव्यापी षड्यंत्र कांग्रेस व संघ-भाजपा ने 1985 से ही अमल में लाना शुरू कर दिया . मंडल आयोग के निमित्त जातीय अरिष्ट तीव्र होने के साथ साथ वर्गीय अरिष्ट भी तीव्र से तीव्रतर होते जा रहा था यह खलबलाहट तत्कालीन विदेशमंत्री एवं वित्तमंत्री वीपी सिंह की बगावत के रूप में रूपांतरित हुई. वीपी सिंह ने जातीय असंतोष को संगठित करते हुए समाजवादियों के साथ जनता दल का गठन किया व आर्थिक असंतोष को एजेंडे पर लाकर कम्युनिस्टों का भी समर्थन हासिल किया 1989 के चुनाव में सत्ता मिलने जितनी सीटें जनता दल ने जीता एवं वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने. 1977 की सत्ताधारी जनता पार्टी में ओबीसी नेताओं को प्रभाव था जिसके फलस्वरूप मंडल आयोग की जाति अंतक रिपोर्ट आई. परंतु इसी जनता पार्टी में संघ-जनसंघ का भी काउंटर प्रभाव होने के कारण मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने तक सरकार टिकी नहीं. सिर्फ 10 वर्ष के बाद सत्ताधारी जनता दल में ओबीसी नेताओं का वर्चस्व था और संघ-भाजपा की काउंटर छावनी जनता दल के बाहर थी इसलिए मंडल आयोग को लागू करते ही सरकार गिराने की राजनैतिक हलचल तेज हो गई.
उपरोक्त इतिहास बताने का प्रयोजन यह है कि जब जब कांग्रेस भाजपा की तानाशाही के विरोध में वामपंथी प्रगतिशीलों एवं फुले अंबेडकर वादियो का संयुक्त गठबंधन या दल बना है, तब तब जाति अंत की लड़ाई अगले टप्पे पर ले जाने का यशस्वी प्रयास हुआ है और उसका श्रेय केवल ओबीसी नेताओं को जाता है उत्तर भारत के समाजवादी ओबीसी नेताओं व दक्षिण भारत के फुले पेरियार वादी अब्राह्मणी ओबीसी नेताओं की आक्रामकता के सामने कांग्रेस–संघ-भाजपा की ब्राह्मणी छावनी पराभूत होती है यह अनुभव तमिलनाडु एवं उत्तर भारत में उप्र-बिहार ने सिद्ध किया है. इसमें ओबीसी फैक्टर महत्वपूर्ण है. इसमें ब्राह्मणी छावनी ने सबक सीखा और प्रति चढ़ाई के लिए एक नई चाल चली, इस नई योजना के अनुसार सभी प्रस्थापित पार्टियों ने प्रत्येक ओबीसी जाति में अपने अपने “दलाल ओबीसी नेता” तैयार किए .इन दलाल ओबीसी नेताओं के भ्रष्टाचार की फाइलें तैयार की गईं और उनके माध्यम से इन दलाल ओबीसी नेताओं को लाचार बनाया गया. ईडी सीबीआई की धमकी देकर उन्हें ओबीसी आंदोलन खत्म करने के काम में लगाया गया. तमिलनाडु व यूपी-बिहार की तरह अन्य राज्यों में क्रांतिकारी विचारों के प्रमाणिक ओबीसी कार्यकर्ता ‘ओबीसी- नेता’ न बनने पाएं इस पर नजर रखने का काम इन दलाल ओबीसी नेताओं को सौंपा गया.
सरकारी 10% कोटा से घर देकर व अलग अलग सरकारी मंडलों – महामंडलों में संचालक के रूप में नियुक्ति देकर अथवा विधानपरिषद की विधायकी का लालच दिखाकर इन सरकारी ओबीसी बुद्धिजीवियों को बधिया कर दिया गया और उन्हें दलाल ओबीसी नेताओं के यहाँ बांध दिया गया. यह नई जातीय योजना तमिलनाडु यूपी बिहार को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में जोरशोर से लागू की गई उसमें भी फुले अंबेडकर के महाराष्ट्र को प्रधानता दी गई. फुले अंबेडकर की जन्मभूमि रहे महाराष्ट्र में जाति अंतक पोटेंशिअल ज्यादा होने के कारण यहाँ महाराष्ट्र में दलाल ओबीसी नेताओं की भरपूर फसल तैयार की गई परंतु इस फसल में अनाज न आने पाए प्रस्थापित पार्टियों ने इसका ध्यान रखा . जिस ओबीसी फसल को अनाज आया उस फसल को एक्सीडेंट कराकर कुचल दिया गया अथवा जेल में डालकर साढ़े तीन साल सड़ा डाला गया इस प्रकार प्रत्येक राज्य से लेकर देश स्तर तक जाने वाला ओबीसी आंदोलन हाइजैक करने में ब्राह्मणी छावनी को सफलता मिल चुकी है. 1990 में मंडल आयोग की धोबी पछाड़ खाने के बाद कांग्रेस- संघ भाजपा की ब्राह्मणी छावनी तात्कालिक तौर पर हतबल हुई थी उसके 7 वर्ष बाद आई देव गोडा की ओबीसी सरकार ने ओबीसी की जाति आधारित जनगणना का दनका दिया, परंतु तबतक दलाल ओबीसी नेताओं के माध्यम से भारत भर का ओबीसी आंदोलन हाइजैक किया जा चुका था. मंडल आयोग के झटके से उबरते हुए उन्हें ओबीसी की जाति आधारित जनगणना को हर हाल में रोकना था. परंतु दलाल ओबीसी नेताओं के कारण ओबीसी जाति आधारित जनगणना की चढ़ाई आक्रामक नहीं हो सकी.
स्वतंत्रता के बाद के हर दस बारह वर्ष के बाद जातीय अरिष्ट होने की परंपरा इस देश को प्राप्त हुई है. कालेलकर आयोग के बाद मंडल आयोग और मंडल आयोग के बाद अब ओबीसी की जाति आधारित जनगणना का मुद्दा एजेंडे पर आया तो जाति वर्ग वर्चस्ववादी ब्राह्मणी छावनी पूरी तरह पस्त होने वाली है.आज भाजपा की ब्राह्मणी छावनी के तानाशाही के खिलाफ जाति अंतक व वर्गांतक गठबंधन बनाना आवश्यक है, परंतु खुद को वामपंथी, समाजवादी व फुले अंबेडकर वादी कहलाने वाली पार्टियां, संगठन प्रस्थापित पार्टियों से बिना शर्त गठबंधन करने में मग्न हैं. वामपंथी कम्युनिस्ट कांग्रेस से गठबंधन कर रहे हैं,अंबेडकर वादी पार्टियां संगठन शिवसेना से गठबंधन कर रहे हैं. केवल चुनाव जीतना व सत्ता में आना इतना ही और यही एकमात्र एजेंडा है. जाति अंत व वर्ग अंत का एजेंडा कहीं भी नहीं है. ऐसी परिस्थिति में जाति व्यवस्था की उच्चतर एवं अमानवीय स्तर पर पुनर्जीवित करने के ठोस व मजबूत एजेंडे पर चलने वाली संघ-भाजपा की ब्राह्मणी छावनी का मुकाबला कैसे करेंगे? केवल चुनाव जीतकर सत्ता प्राप्ति का शार्ट कट अपनाया तो संघ-भाजपा द्वारा खोदे गए प्रतिक्रांति के गड्ढे तुम गिरोगे ही यह निश्चित है, यह शार्ट कट कैसे लिया जा रहा है, इसका लेखाजोखा उत्तरार्ध में पढ़िए !
तब तक के लिए जय ज्योति- जय भीम, सत्य की जय हो !